खुद के ऊपर शायरी | Khud Ke Uper Shayari
मोहब्बत ऐसी थी कि उनको दिखाई न दी!
चोट दिल पर थी इसलिए दिखाई न गयी!
चाहते नहीं थे उनसे दूर होना पर!
दुरिया इतनी थी कि मिटाई न गयी!
खुद के ऊपर शायरी
देख कर जो हमें चुपचाप चला जाता है
कभी उस शख्स को हम प्यार किया करते थे
इत्तफाकाते ज़माना भी अजब है नासिर
आज वो देख रहें हैं जो सुना करते थे
जिस को भी देखो तेरे दर का पता पूछता है
क़तरा क़तरे से समुंदर का पता पूछता है
ढूँढता रहता हूँ आईने में अक़्सर ख़ुद को
मेरा बाहर मेरे अंदर का पता पूछता है
ख़त्म होते ही नहीं संग किसी दिन उसके
रोज़ वो एक नए सर का पता पूछता है
ढूँढ़ते रहते हैं सब लोग लकीरों में जिसे
वो मुकद्दर भी सिकंदर का पता पूछता है
मुस्कुराते हुए मैं बात बदल देता हूँ
जब कोई मुझसे मेरे घर का पता पूछता है
दर-ओ-दीवार हैं ये मेरे ग़ज़ल के मिसरे
क्या सुखन-वर से सुखन-वर का पता पूछता है …
”गुलों के बीच में मानिन्द ख़ार मैं भी था
फ़क़ीर ही था मगर शानदार मैं भी था I
मैं दिल की बात कभी मानता नहीं फिर भी
इसी के तीर का बरसों शिकार मैं भी था I
मैं सख़्त जान भी हूँ बे नेयाज़ भी लेकिन
बिछ्ड़ के उससे बहुत बेक़रार मैं भी था I
तू मेरे हाल पर क्यों आज तन्ज़ करता है
इसे भी सोच कभी तेरा यार मैं भी था I
ख़फ़ा तो दोनों ही एक दूसरे से थे लेकिन
निदामत उसको भी थी शर्मसार मैं भी था I
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